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Anubhav

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जीवन में मेरे अनुभवों का संसार बहुत विचित्र  है ! लोगो का करीब आना और छटक कर दूर किसी अँधेरे में गुम हो जाना मानो जीवन की नियति रही है ! जीवन की विडम्बना यही रही की ये काफिला कभी रुका नहीं, कभी अकेली नहीं रही पर कोई दूर तक साथ निभा नहीं पाया ! जगह खाली हुई, फिर भरी, फिर खाली हुई , फिर भरी और इस खाली होने और भरने की प्रक्रिया में हर बार सिर्फ में और में ज़ख़्मी हुई,  में टूटी, में कमज़ोर हुई __________ एक कोमल लता समान ! पर अंतत इस पूरी यात्रा में मेरे अनुभवों का वटवृक्ष बढता गया और मैंने पाया की अब मैंने जीवन यात्रा में चोटिल न होने की कला सीख ली है.........पर क्या सचमुच ?.....कहना कठिन है.....! क्यूकि यात्रा अभी चलायेमान है और में अभी भी सीख रही हु.....:)