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दामिनी की मौत ! देश के लिए एक शर्मनाक घटना ! सोच के भी रूह काँप उठती है की किस तरह के सामाजिक , नैतिक पतन की और जा रहे  है हम.....हमारे संस्कार क्यों इतने कमज़ोर हो चलें है की हम अपनी ही औरुतो की सुरक्षा कर पाने में असमर्थ है......उपभोगतावाद की इस संस्कृति में सब कुछ उपभोग की श्रेणी में आ गया है...हम ने अपने दायरे सिर्फ अपने आप तक सिमित कर लिए है.....हम ने मान लिया है की यदि हम सुरक्षित है तो सब सुरक्षित ही होंगे.....सुबह की ताज़ा खबर चाय की चुस्कियो के साथ पड़ना सिर्फ एक शौक और ये दिखाने का नजरिया भर बनके कह गया है की हम भी पढ़े लिखे है.....पर सवाल ये है की क्या सचमुच हम ज्ञानी है ?.....जब हमारी बुद्धि सही और गलत के फर्क को पहचान ही नहीं पाती तो ये किस तरह का ज्ञान हम सहेज के चल रहे है....?....और इस ज्ञान के बलबूते हम किस तरह का मार्गदर्शन दे पाने में सक्षम है अपनी नयी पौध को ?....दामिनी की मौत कई तरह के सवाल खड़े करती है.....ये पूछती है हमसे की आखिर ये किसकी हार है..... हमारे समाज की , हमारी व्यवस्था की या हमारे पारंपरिक मूल्यों की ....एक बच्चा जब जनम लेता है तो उसका सबसे पहला विद्यालय उसका अपना घर होता है....अपने घर में वो सबसे पहले सीखता है सम्मान देने का तात्पर्य क्या है , ये किसे देना है और क्यों देना है.....रिश्तों का सही मूल्य का ज्ञान वो अपने परिवार से जान पता है....मनुष्यता से उसका परिचय परिवार ही करता है .....लेकिन आज हम खुद को कुछ खास और अलग दिखाने की प्रवत्ति में हम उसी बच्चे को सिखाते है दूसरों के साथ भेदभाव कैसे करना है....हम हर कदम पर उसे सिखाते है , आगे बढ़के की फर्क कैसे किया जाता है....हम सिखाते है उसे की उसके घर का व्यक्ति तो सम्मान का अधिकारी है लेकिन समाज से किसी भी और दायरे से आया व्यक्ति ,जैसे हमसे अलग अलग हैसियत रखने वाला , हमसे अलग पहचान रखने वाला उस सम्मान का अधिकारी नहीं......मुझे याद है खास दो परिवारों के अपने अनुभव जिन्हें देखके मेरे मन में ये प्रश्न आया की ये कौन से सामाजिक मूल्य है जिसकी ये परिवार संरचना कर रहे है.....पहला वो स्वर्ण परिवार जो खुद के जनम से स्वर्ण होने पे कुछ इस हद तक इतराते हुए अपने घर के ये नियम निर्धारित करता है की घर की चौखट पे खड़े किसी भी अनजान, निर्धन प्यासे व्यक्ति को पानी बाहर रखे उन बर्तनों में दिया जाना चाहिए जिन्हें बाद में मंझना ना पड़े क्योंकी कौन जाने पानी मांगने वाला कौन सी जाति से था, ना सिर्फ जात , उसकी आर्थिक संपन्नता भी चूँकि हमसे मेल नहीं खाती इसलिए वो मनुष्यता के नाते भी सम्मान का पात्र नहीं....जो माँ इन मूल्यों को लगभग गौरान्वित होते हुए, अपनाये हुई थी , वो नहीं जानती थी की वो किन संस्कारों का निर्माण कर रही है और अपने बच्चो तक उनका संचार कर रही है.....मुझे हैरानी नहीं होंगी अगर आज में फिर ये देखू की उसकी पुत्री उसी की परंपरा को आगे बढ़ा रही हो या उसका पुत्र अपनी स्त्री को यही परंपरा निभाने को कहे बावज़ूद इसके की दोनों ही पुत्र और पुत्री और पुत्रवधू अपनी माँ से कई ज्यादा शिक्षित होंगे.......दूसरा अनुभव उस परिवार का जंहा खुदकी पहचान , अच्छी आर्थिक सम्पन्ता हासिल करते ही, समाज से अधिक सम्मान पाने की लालसा में कुछ यु छुपा ली जाती है की फिर आचरण भी सवयं ही बदल जाता है.....यहाँ भी समाज के एक वर्ग से आया बुढा भिक्षुक साधु बाहर रख्खें हुए बर्तनों में खाना खाने का अधिकारी है क्यों की उसकी जात का पता नहीं और ना ही उसकी आर्थिक सम्पन्ता हमसे मेल खाती है....बस फर्क इतना है की यहाँ साधु को भोजन कराना हमारी खुदकी ज़रूरत है इसलिए हमने फर्क और ज़रूरत दोनों को एक साथ समझते हुए बीच का रास्ता निकाल के एक नए संस्कार का निर्माण कर लिया....हमने सीख लिया की घर के वृद्ध और बाहर के वृद्ध में सम्मान का फर्क कैसे करना है और उसका आधार क्या हो.....इन दोनों ही अनुभवों को अगर उपरी सतह पे हम देखेंगे तो ज़रूर ये जातिगत और आर्थिक भेदभाव का आधार लगेगे पर मेरा मानना है की ये कही गहरे निर्माण करते है , भेदभाव करने के उस कौशल का जहा दूसरों को सम्मान ना दिया जाये जो हमारे अपने नहीं है....उस कौशल का जो हमे ये सिखाए की दूसरों के प्रति अस्वन्देनशील किस प्रकार हुआ जाये.....और यही प्रवति आज के समय में इन छोटे छोटे मूल्यों से सीखके जिनके रचयिता अनजाने ही हम खुद है , बनाती है उस समाज को जहा सुबह चाय की चुस्कियां पीते खबरों का असर पढके भी, हम पर इसलिए नहीं होता क्यों की जिस पर ये बीता वो हमारा अपना नहीं है.....हम फर्क करना बचपन से जानते है की कौन हमारा अपना है और कौन पराया , घर के दायरे में , धर्म के दायरे में, जात के दायरे में, आर्थिक संपन्नता के दायरे में, पहचान के दायरे में........परायो के प्रति असंवेदनशील कैसे रहा जाता है ये हमने सब से पहले हमने अपने घर में सिखा है.....पर बात सिर्फ इन दो अनुभवों पे आके नहीं रूकती ....ना मालूम ऐसे कितने ही और संस्कार है जिनका नर्माण हम अनजाने ही करते जाते है अपने हर दिन के आचरण में और फिर समाज को ले आते है विस्फोट की उस दिशा में जैसा हमने अब जाके देखा..........समाज में व्यवस्था का निर्माण भी हम ही करते है ...इस में कोई दो राय नहीं समय आ गया है की इस व्यवस्था को अब बदलना होगा जो हमे एक सुरक्षित समाज देने में असक्षम है ....लेकिन उस से भी बड़ी ज़रूरत है , कई गहरे उस मानसिकता में झाँकने की जो हमे आज इस मोड पर ले आई है ......आज भी सच ये है की की छोटे बच्चो की सोच के साथ खेलने के बाद हम अपने नौजवानों के सामने उसी घर में ये मिसाल लेके आते है की अगर गलती लड़के की है तो उसको सुधरने के सौ मौके दिए जायेंगे और फिर भी वो नहीं बदला तो उसके साथ ताल मेल बना के उससे वैसे ही अपना लिया जायेगा लेकिन एक लड़की की अगर कोई गलती ऐसी है जो समाज की सोच से मेल नहीं खाती तो सबसे पहले उसका बहिष्कार कर दिया जायेगा ताकि वो किसी और के सामने अपने हक की मिसाल कायम ना कर सके ........समय आ गया है की हम अपनी खुदकी दोहरी मानसिकता से बाहर आये और निर्माण करे उस समाज का ,जहा किसी का भी सम्मान और अधिकार बराबर का हो बिना किसी भेद्बाव के.....और तब भी अगर कोई इस से इतर कुछ करे तो हो हमारे पास वो व्यवस्था हो जिसके बलबूते हम ये कह सके की हाँ इन्साफ होता है इस देश में और सही समय पे होता है......................!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

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